रविवार, 10 मार्च 2013

भारतीय स्वतंत्रता के जनक वीर सावरकर

 भारतीय स्वतंत्रता के जनक वीर सावरकर

कब तक दाँतों को पीसेंगे, कब तक मुट्ठी भीचेंगे,

कब तक आँखों के पानी, हम पीड़ा को सीचेंगे।

रोज यहाँ गाली मिलती है, देषभक्त परवानों को,

आजादी के योद्धाओं, भारत के दीवानों को।।

जिनके ओछे कद हैं, वो ही अम्बर के मेहमान बने,

जो अंधियारों के चारण थे, सूरज के प्रतिमान बने।

इन लोगों ने भारत का, बलिदानी पन्ना फँूक दिया,

सावरकर के रिसते घावों, पर ही भाला भौंक दिया।।

जो चीनी हमले के दिन, भी गद्दारी के गायक थे,

माओ के बिल्ले लटकाने, वाले खलनायक थे।

जिनके अपराधों की गणना, किए जमाने बैठे हैं,

वो सावरकर के छालों का, मोल लगाने बैठे हैं।।

ये क्या जाने सावरकर, या अंडमान के पानी को,

जो गाली देते रहते हैं, झाँसी वाली रानी को।

ये ए.सी. कमरों में बैठे, मात्र जुगाली करते हैं,

कॉफी-सिगरेट के धुँए में, हर्फ सवाली करते हैं।।

कुछ दिन इन सबको भी, भेजो अंडमान काला पानी,

दो दिन में ही याद करेंगे, ये अपनी दादी-नानी।

कोल्हू के चक्कर से पूछो, उसके पैरों के छाले,

जिसने आजादी के सपने, काल कोठरी में पाले।।

जिसने तेरह वर्ष खपाये, अपने काले पानी पर,

सारे तीर्थ न्यौछावर, उसकी पावन कुर्बानी पर।

जो सूरज की प्रथम किरण पर, कोल्हू में जुत जाते थे,

वो आजादी के सूरज को, अपना रक्त चढ़ाते थे।।

उनका चित्र भले मत टाँगों, संसद रूपी मीने में,

सावरकर का चित्र टँगा है, हर देषभक्त के सीने में।

जिस माँ ने दो-दो बेटों को, भेजा हो काला पानी,

उसने गाथा दोहरा दी है, पन्ना की राजस्थानी।।

जिनके बीच काल कोठरी ने, खींची काली रेखा,

सात वर्ष के बाद भाई ने, दूजे भाई को देखा।

बाँहें दोनों की मिलने को, उस पल अकुलाई होंगी,

दोनों ने बचपन की यादें, क्षण भर दोहराई होंगी।।

मिलते समय जेल प्रहरी के, पहरे बड़े लगे होंगे,

पहली बार उन्हे बेड़ी के, बंधन कड़े लगे होंगे।

मन ही मन दोनों ने शायद, बातें बहुत करी होंगी,

आँखों से गंगा-यमुना, साथ-साथ झरी होगी।।

सहसा पैरों में लोहे की, बेड़ी खनक गई होगी,

ओर बिछुड़ते समय भाई की, आँखें छलक गईं होगी।

फिर शायद आँसू पौंछे हों, दिल में जोष भरा होगा,

मुट्ठी कसकर आजादी का, दृढ़ संकल्प किया होगा।।

लेकिन जिस दिन ये बेहूदी, घटना यहाँ घटी होगी,

उस दिन स्वर्गलोक में उनकी, रातें नहीं कटी होंगी।

सेल्युलर की काल कोठरी, सहसा जाग गई होगी,

सागर की बर्फीली लहरें, भीषण आग हुई होंगी।।

काल कोठरी वाली लौह, सलाखें गर्माई होंगी,

फाँसी के तख्ते पर लटकी, रस्सी चिल्लाई होगी।

सावरकर की आँखो से तब, खारा जल छलका होगा,

कोल्हू से उस समय तेल की जगह लहू टपका होगा।।

कायर राजनीति ने लेकिन, वो लहू भी चाट लिया,

वोटों की खातिर संसद ने, युगपुरूषों को बाँट लिया।

हमने केवल कुछ पुतलों को, चौराहों पर खड़ा किया,

और कुछ लोगों को केवल, तसवीरों में जड़ा दिया।।

हमें आजादी मिलते ही सब, अपने मद में फूल गए,

शास्त्री वीर सुभाष विनायक, सावरकर को भूल गए।

कयोंकि इनके नामों में कुछ, वोट नहीं मिल सकते थे,

इनको याद दिलाने से, सिंहासन हिल सकते थे।।

हमने मोल नहीं पहचाना, राजगुरू की फाँसी का,

हमने ऋण नहीं चुकाया, अब तक रानी झाँसी का।

बिस्मिल जी की बहन मर गई, जूठे कप धोते-धोते,

और यहाँ दुर्गा भाभी ने, दिन काटे रोते-रोते।।

वरना वो दिन दूर नहीं, मौसम फागी हो जाएगा,

किसी दिवाने देषभक्त का, दिल बागी हो जाएगा।

अपने हाथें में पिस्टल ले, वो सड़कों पर आएगा,

और किसी कायर सीने को, वो छलनी कर जाएगा।।

अब भी समय नहीं बीता है, भूलों पर पछताने का,

भारत माता के मंदिर में, अपने शीष झुकाने का।

जिस दिन बलिदानी चरणों पर, अपने ताज धरोगे तुम,

उस दिन सौ करोड़ लोगों के, दिल पर राज करोगे तुम।।

विनीत चौहान, अलवर

कोई टिप्पणी नहीं:

लोकप्रिय पोस्ट

मेरी ब्लॉग सूची