बुधवार, 27 मार्च 2013

होली की हार्दि‍क शुभकामनायें


प्रि‍य बन्‍धुओ आप सभी को होली की हार्दि‍क शुभकामनायें 
आज के आनंद की तरह आप हमशा आनंदि‍त प्रसन्‍न बने रहें आपका जीवन हमेशा रंगीन बना रहे


गुलजार खिले हो परियों के, और मंजिल की तैयारी हो 
कपड़ों पर रंग के छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो।



नेचर का हर रंग आप पर बरसे 

हर कोई आपसे होली खेलने को तरसे 

रंग दे आपको सब मिलकर इतना 

कि वह रंग उतरने को तरसे....

पेनड्राईव को बूटेबल कैसे बनायें


पेनड्राईव को बूटेबल कैसे बनायें

इसकी आवश्‍यकता क्‍यों ः-
                     इस वि‍षय पर पहले ही एक लेख लि‍ख चुका हूं पर यह वि‍धि‍ उनके लि‍ये वि‍ल्‍कुल सरल तथा आसान है जो कि‍ कमांड टाईप करने से बचना चाहते हैं यह पूर्णतया ग्राफि‍क परि‍वेश में है जि‍ससे यह काफी हद तक आसान है
 
इसके लि‍ये आवश्‍यक यु‍क्‍ति‍यां:-
1-               4 गीगीबाईट पेनड्राईव
2-               ‍वि‍न्‍डोज बूटेबल सीडी/डीवीडी  विन्‍डोस एक्‍स पी/ 7 /‍वि‍ष्‍टा /8 इनमें से कोई भी
3-               Power ISO नामक सॉफटवेयर जि‍से google पर खोज कर डाउूनलोड कर सकते हैं
4-               एक पीसी जिसमे विन्‍डोस एक्‍सपी या इससे नया संस्‍करण स्‍थापित हो
5-               पीसी में एक डीवीडी राईडर होना भी अनिवार्य है

अब यह कार्य निम्‍न चरणों में संम्‍पन्‍न करें

1-       Power ISO नामक सॉफटवेयर जि‍से google पर खोज कर डाउूनलोड किया है अपने पीसी पर स्‍थापित करके रन करते हैं

2-       अब tools menu -à make CD/DVD/BD image file का चयन करते हैं अब डेस्‍टिनेसन फाईल मे .iso redio button पर चटका लगाते हैं


3-       नीचे फाईल को सुरक्षित करने के लिये लोकेशन देते हैं तत्‍पश्‍चात्‍ ओके पर चटका लगाते हैं

वैसे इमेज फाईल नेरो के द्वारा भी बना सकते हैं

4-       बूटेबल विन्‍डोज सीडी/डीवीडी की इमेज फाईल बन जाने के बाद पेनड्राईव को पीसी में लगा कर प्रारूपित कर लेते हैं


5-       अब फिर से powerISO को दायां चटका लगाकर  रन एस एडमिनिस्‍ट्रेटर विकल्‍प का चयन करते हैं   

6-       अब tools menu -à Create Bootable USB  Drive का चयन करते हैं

7-       अब सोर्स फाईल के रूप में बनाई गई इमेज फाईल को खोज कर सलेक्‍ट करते हैं

8-       डैस्टिनेसन युएसवी ड्राईव में उस पेनड्राईव केलेटर को सलेक्‍ट करते हैं जिसे बूटेवल डिस्‍क बनाना है

9-       अब स्‍टार्ट पर चटका लगा देते हैं तथा कार्य सम्‍पन्‍न होने तक प्रतीक्षा करते है

लीजिये आपका पोर्टेबल औजार तैयार हो गया अब इसका उपयोग कर सकते हैं

है ना कि‍तना आसान केवल माउूस के द्वारा ही सारा कार्य सम्‍पन्‍न हो गया 

रविवार, 10 मार्च 2013

भारतीय स्वतंत्रता के जनक वीर सावरकर

 भारतीय स्वतंत्रता के जनक वीर सावरकर

कब तक दाँतों को पीसेंगे, कब तक मुट्ठी भीचेंगे,

कब तक आँखों के पानी, हम पीड़ा को सीचेंगे।

रोज यहाँ गाली मिलती है, देषभक्त परवानों को,

आजादी के योद्धाओं, भारत के दीवानों को।।

जिनके ओछे कद हैं, वो ही अम्बर के मेहमान बने,

जो अंधियारों के चारण थे, सूरज के प्रतिमान बने।

इन लोगों ने भारत का, बलिदानी पन्ना फँूक दिया,

सावरकर के रिसते घावों, पर ही भाला भौंक दिया।।

जो चीनी हमले के दिन, भी गद्दारी के गायक थे,

माओ के बिल्ले लटकाने, वाले खलनायक थे।

जिनके अपराधों की गणना, किए जमाने बैठे हैं,

वो सावरकर के छालों का, मोल लगाने बैठे हैं।।

ये क्या जाने सावरकर, या अंडमान के पानी को,

जो गाली देते रहते हैं, झाँसी वाली रानी को।

ये ए.सी. कमरों में बैठे, मात्र जुगाली करते हैं,

कॉफी-सिगरेट के धुँए में, हर्फ सवाली करते हैं।।

कुछ दिन इन सबको भी, भेजो अंडमान काला पानी,

दो दिन में ही याद करेंगे, ये अपनी दादी-नानी।

कोल्हू के चक्कर से पूछो, उसके पैरों के छाले,

जिसने आजादी के सपने, काल कोठरी में पाले।।

जिसने तेरह वर्ष खपाये, अपने काले पानी पर,

सारे तीर्थ न्यौछावर, उसकी पावन कुर्बानी पर।

जो सूरज की प्रथम किरण पर, कोल्हू में जुत जाते थे,

वो आजादी के सूरज को, अपना रक्त चढ़ाते थे।।

उनका चित्र भले मत टाँगों, संसद रूपी मीने में,

सावरकर का चित्र टँगा है, हर देषभक्त के सीने में।

जिस माँ ने दो-दो बेटों को, भेजा हो काला पानी,

उसने गाथा दोहरा दी है, पन्ना की राजस्थानी।।

जिनके बीच काल कोठरी ने, खींची काली रेखा,

सात वर्ष के बाद भाई ने, दूजे भाई को देखा।

बाँहें दोनों की मिलने को, उस पल अकुलाई होंगी,

दोनों ने बचपन की यादें, क्षण भर दोहराई होंगी।।

मिलते समय जेल प्रहरी के, पहरे बड़े लगे होंगे,

पहली बार उन्हे बेड़ी के, बंधन कड़े लगे होंगे।

मन ही मन दोनों ने शायद, बातें बहुत करी होंगी,

आँखों से गंगा-यमुना, साथ-साथ झरी होगी।।

सहसा पैरों में लोहे की, बेड़ी खनक गई होगी,

ओर बिछुड़ते समय भाई की, आँखें छलक गईं होगी।

फिर शायद आँसू पौंछे हों, दिल में जोष भरा होगा,

मुट्ठी कसकर आजादी का, दृढ़ संकल्प किया होगा।।

लेकिन जिस दिन ये बेहूदी, घटना यहाँ घटी होगी,

उस दिन स्वर्गलोक में उनकी, रातें नहीं कटी होंगी।

सेल्युलर की काल कोठरी, सहसा जाग गई होगी,

सागर की बर्फीली लहरें, भीषण आग हुई होंगी।।

काल कोठरी वाली लौह, सलाखें गर्माई होंगी,

फाँसी के तख्ते पर लटकी, रस्सी चिल्लाई होगी।

सावरकर की आँखो से तब, खारा जल छलका होगा,

कोल्हू से उस समय तेल की जगह लहू टपका होगा।।

कायर राजनीति ने लेकिन, वो लहू भी चाट लिया,

वोटों की खातिर संसद ने, युगपुरूषों को बाँट लिया।

हमने केवल कुछ पुतलों को, चौराहों पर खड़ा किया,

और कुछ लोगों को केवल, तसवीरों में जड़ा दिया।।

हमें आजादी मिलते ही सब, अपने मद में फूल गए,

शास्त्री वीर सुभाष विनायक, सावरकर को भूल गए।

कयोंकि इनके नामों में कुछ, वोट नहीं मिल सकते थे,

इनको याद दिलाने से, सिंहासन हिल सकते थे।।

हमने मोल नहीं पहचाना, राजगुरू की फाँसी का,

हमने ऋण नहीं चुकाया, अब तक रानी झाँसी का।

बिस्मिल जी की बहन मर गई, जूठे कप धोते-धोते,

और यहाँ दुर्गा भाभी ने, दिन काटे रोते-रोते।।

वरना वो दिन दूर नहीं, मौसम फागी हो जाएगा,

किसी दिवाने देषभक्त का, दिल बागी हो जाएगा।

अपने हाथें में पिस्टल ले, वो सड़कों पर आएगा,

और किसी कायर सीने को, वो छलनी कर जाएगा।।

अब भी समय नहीं बीता है, भूलों पर पछताने का,

भारत माता के मंदिर में, अपने शीष झुकाने का।

जिस दिन बलिदानी चरणों पर, अपने ताज धरोगे तुम,

उस दिन सौ करोड़ लोगों के, दिल पर राज करोगे तुम।।

विनीत चौहान, अलवर

मेरे देशवासियों मै नाथूराम गोडसे बोल रहा हूँ

 

मेरे देशवासियों मै नाथूराम गोडसे बोल रहा हूँ 

                     नाथू राम गौडसे। इस नाम के सुनते ही एक क्रूर हत्या का जो रूप भारतीय जनमानस की आँखों के सामने आता है, वह रूप गाँधी के हत्यारे का है। मैं भारतीय जनता से एक बात अवश्य पूछना चाहूँगा कि जिस व्यक्ति ने महात्मा गाँधी की हत्या की क्या भारतीय जनमानस उस व्यक्ति के उन विचारों को जानता है जिनके कारण नाथू राम गौडसे ने गाँधी की हत्या की। क्या नाथूराम गौडसे की महत्मागाँधी से कोई जातिय दुश्मनी थी या नाथूराम गौडसे कोई विक्षिप्त व्यक्ति था। कितने व्यक्ति जानते हैं कि नाथूराम गौडसे ने भारत की आजादी की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था कितनों को मालूम है कि नाथूराम ने जेल में अंग्रेजी सरकार के कोड़े खाये थे।

वास्तव में देखा जाये तो नाथूरामगौडसे ने गाँधी जी को राजनैतिक कारणों से मारा था जो कि नाथराम द्वारा दिये गये वक्तव्यों से स्पष्ट भी होता है। नाथूरामगौडसे के जिन बयानों को तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने किसी भय के कारण भारतीय जनता से छूपाया तथा उनके किसी भी प्रकार के छपने पर रोक लगाई थी, वह रोक कोर्ट द्वारा 1962 में हटा दी गयी थी। फिर भी किन्हीं कारणों से ये बयान जनता तक कम ही पहुंच पाये।
पंडित नाथूरामगौडसे के उन क्रांतिकारी बयानों को मैं राष्ट्र-समिधा पत्रिका के द्वारा आप तक पहुंचाने की कोशिश में जुटा हूं। आप स्वयं जाने की गाँधी जी की नाथू राम गौडसे ने हत्या की थी अथवा वध।

ये बयान पुस्तक ‘‘गाँधीवध क्यांे?’’ लेखक-गोपाल गौडसे से ज्यों के त्यों लिये गये हैं। बयानों से पहले दी गयी भूमिका भी पुस्तक गाँधीवध क्यों? से ली गयी है।


35) उन्हीं दिनों बहुत-सी घटनाएँ ऐसी हुई, जिनसे मुझे ऐसा विश्वास हो गया कि सावरकर जी और अन्य नेता मेरे विचारों के युवकों की उग्र नीति का समर्थन नहीं करेंगे। 1946 में सुहरावर्दी की सरकार के समय नोआखाली (बंगाल) में मुसलमानों के हाथों हिन्दुओं पर जो अत्याचार हुए, उससे हमारा खून खौल गया। हमारा क्षोभ उस समय और भी उग्र हो गया, जब गांधी जी ने सुहरावर्दी को शरण दी और प्रार्थना-सभाओं में ‘शहीद साहब’ के नाम से सम्बोधित करना प्रारम्भ किया। गांधी जी जब दिल्ली आए तो भंगी कालोनी के मन्दिर में अपनी प्रार्थना-सभा में जनता और पुजारियों के विरोध करने पर भी उन्होंने कुरान की आयतें पढ़ी लेकिन कभी भी वह किसी मस्जिद में (मुसलमानों के भय से) गीता न पढ़ सके। वह जानते थे कि मस्जिद में गीता पढ़ने से मुसलमानों द्वारा उनके साथ किस प्रकार का व्यवहार होगा? वे सदा सहनशील हिन्दुओं को ही कुचलते रहे। मैंने गांधी जी के इन विचारों को, कि हिन्दू सहनशील होता हैं, नष्ट करने का निर्णय किया। मैं उनको यह सिद्ध करके दिखाना चाहता था कि जब हिन्दू का अपमान होता है, तब वह भी सहनशीलता छोड़ सकता है और मैंने ऐसा ही करने का निश्चय किया।

(36) मैंने और आपटे ने यह निश्चय किया कि उनकी प्रार्थना-सभाओं में इतने प्रदर्शन करें कि उनके लिए प्रार्थना-सभा करना असम्भव हो जाए। श्री आपटे ने कुछ शरणार्थी साथ लेकर शहर में एक जुलूस भी निकाला, जिसमें गांधी जी और सुहरावर्दी के विरूद्ध नारे लगाए गए और भंगी कालोनी की प्रार्थना-सभा में प्रदर्शन किया। उस समय हमारा हिंसा करने का लेशमात्र भी विचार न था, फिर भी गांधी जी ने कायरतापूर्वक पिछले दरवाजे की शरण ली और अपने आपको सुरक्षित करने का प्रयत्न किया।

(37) जब श्री सावरकर ने इस प्रदर्शन के विषय में पढ़ा तो उन्होंने हमारे कार्य की प्रशंसा नहीं की, प्रत्युत मुझे एकांत में ऐसे कार्य के लिए बहुत बुरा-भला कहा। यद्यपि हमने प्रदर्शन शान्तिपूर्ण किए थे तथापि उन्होंने कहा, ‘‘जिस प्रकार मैं इस बात की निन्दा करता हूँ कि कांग्रेस से संबंध रखने वाले लोग हमारी सभाओं और चुनाव में शान्ति भंग करते हैं। उसी प्रकार मुझे इस बात की भी निन्दा करनी चाहिए कि हिन्दू संगठनवादी लोग कांग्रेस वालों के किसी कार्यक्रम को भंग करते हैं। यदि गांधी जी अपनी प्रार्थना-सभा में हिन्दुओं के विरूद्ध बोलते हैं तो उसी प्रकार आप भी अपनी पार्टी की सभा करें और गांधी जी के सिद्धान्तों का खण्डन करें। हम सबको अपनी-अपनी बात का प्रचार संवैधानिक नियमानुसार करना चाहिए।’’

़(38) दूसरी महत्वपूर्ण घटना उस समय हुई, जब भारत के विभाजन का अन्तिम निश्चय हुआ। उस समय कुछ हिन्दू-सभाई यह जानना चाहते थे कि विभाजित भारत की नई कांग्रेस सरकार के साथ हिंदू-महासभा का क्या व्यवहार होगा? वीर सावरकर आदि हिन्दू नेताओं ने कहा कि नई सरकार को किसी दल अथवा कांग्रेस की सरकार नहीं मानना चाहिए, प्रत्युत भारत की राष्ट्रीय-सरकार समझना चाहिए और उसकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना चाहिए। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान बनने का उनको दुख तो अवश्य है, परन्तु फिर भी नई आजादी की रक्षा करने के लिए और उसे स्थाई रखने के लिए नई सरकार को सहयोग देना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। यदि नई सरकार को सहयोग न दिया तो देश में गृहयुद्ध हो जाएगा और मुसलमान अपने गुप्त उद्देश्य अर्थात् सारे भारत को पाकिस्तान बनाने में सफल हो जाएंगे।

(39) मुझे और मेरे मित्रों को सावरकर जी के ये विचार सन्तोषजक नहीं लगे। हमने सोच लिया कि हमें हिन्दू जाति के हित में सावरकर जी के नेतृत्व को छोड़ देना चाहिए। अपनी भविष्य की योजनाओं और कार्यक्रम के विषय में उनका परामर्श नहीं लेना चाहिए और न हमको अपनी भविष्य की योजनाओं का भेद उनको देना चाहिए।

(40) कुछ समय बाद ही पंजाब और भारत के अन्य भागों में मुसलमानों के अत्याचार शुरू हो गए। काँग्रेस शासन ने बिहार, कलकत्ता, पंजाब और अन्य स्थानों पर उन हिन्दुओं को ही गोली का निशाना बनाना शुरू कर दिया, जिन्होंने मुसलमानों की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने का साहस किया था। जिस बात से हम डरते थे, वहीं होकर रही। फिर भी कितनी लज्जा की बात थी कि कांग्रेस शासन 15 अगस्त, 1947 को रंगरलियाँ रचाए, रोशनी करे और आनन्दोत्सव मनाएं, जबकि उसी दिन पंजाब में मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं का खून बहाया जा रहा था और पंजाब में हिंदुओं के घर जलाए जा रहे थे। मेरे विचारों के हिंदू-सभाइयों ने निश्चय किया कि हम उत्सव न मनाएं और मुसलमानों के बढ़ते हुए अत्याचार को रोकने का प्रयत्न करें।

(41) हिन्दू-महासभा की कार्यकारिणी और अखिल भारतीय हिन्दू कनवेन्शन की सभाएं नौ ओैर दस अगस्त को दिल्ली में हुई थीं, जिनकी अध्यक्षता सावरकर जी ने की। आपटे ने और मेरे विचारों के अन्य सदस्यों ने भरसक प्रयत्न किया कि महासभा के नेताओं श्री सावरकर, मुखर्जी और श्री भेपटकर को अपने विचारों से सहमत करें और यह प्रस्ताव पारित कराएं कि कांग्रेस से भारत-विभाजन और हिन्दुओं के व्यापक विनाश के प्रश्न पर टक्कर ली जाए, परन्तु महासभा वर्किग कमेटी ने हमारे इन परामर्शे को भी नहीं माना कि हैदराबाद के विषय में विशेष रूप से कोई कार्य किया जाए, या नई कांग्रेस सरकार का बहिष्कार किया जाए। मेरे व्यक्तिगत विचार में विभाजित भारत की सरकार को वैध सरकार मानना और उसकी सहायता करना ठीक नहीं था। परन्तु कार्यकारिणी ने यह प्रस्ताव पारित किया कि 15 अगस्त को जनता अपने घरों पर भगवा ध्वज लहरायए। वीर सावरकर ने स्वयं आगें बढ़कर कहा कि चक्र वाले तिरंगे झण्डे को राष्ट्रध्वज स्वीकार किया जाए। हमने इस बात का खुला विरोध किया।

(42) केवल यही नहीं, 15 अगस्त को वीर सावरकर ने बहुत से हिन्दू राष्ट्रवादियों की इच्छा के विरूद्ध, अपने मकान पर भगवे ध्वज के साथ चक्र वाला तिरंगा ध्वज भी लहराया। इसके साथ ही जब मुखर्जी ने टंªककाल से पूछा कि नई गवर्नमेंट में वे मन्त्री पद स्वीकार करेंगे या नही, तब सावरकर जी ने उत्तर दिया कि नई गवर्नमेंट में और सभी पार्टियों को सहयोग देना चाहिए, चाहे इसमें मन्त्री किसी भी पार्टी के हों। हिन्दू राष्ट्रवादियों को चाहिए कि यदि उनके नेता को मन्त्री पद दिया जाए तो वह उसे स्वीकार करके अपने सहयोग का प्रमाण दे। उन्होंने कांग्रेस नेताओं को इस बात पर बधाई दी कि वह मंत्रीमंडल बनाने में सबका सहयोग प्राप्त कर रहे थे और उन्होंने हिन्दू-सभा के नेता डॉं.श्यामप्रसााद मुखर्जी को मन्त्री पद के लिए आमन्त्रित किया। श्री भोपवटकर का भी ऐसी ही विचार था।

(43) उस समय कांग्रेस ने उच्च-नेता और कुछ प्रान्तीय-मन्त्री सावरकर जी से पत्र-व्यवहार कर रहे थे। नई गवर्नमेंट सबके सहयोग से बने, यह तो सावरकर जी पहले ही निश्चय कर चुके थे। मुझे सब दलों की मिली-जुली सरकार से कोई विरोध न था। चूॅकि कांग्रेस गवर्नमेंट गांधी जी के इशारों पर चलती थी,। यदि किसी समय कांग्रेस सरकार उनकी कोई बात नहींे मानती, तो वह अनशन की धमकी देकर मना लेते थे। ऐसी स्थिति में जो सरकार (कांग्रेस सरकार या सबकी मिली-जुली सरकार) बनती, उसमें कांग्रेस का बहुमत तो निश्चिय ही था और यह भी तय था कि वह सरकार गांधी जी की आज्ञा में चलेगी। तब उसके द्वारा हिन्दुओं के साथ अन्याय होते रहना निश्चित था।

(44) जो भी कार्य वीर सावरकर आदि ने इस दिशा में किये, मेरे मन में उनकी इस नीति के प्रति घोर विरक्ति हो गई और मैंने ,आपटे ने एवं अन्य हिन्दू संगठनवादी नवयुवकों ने यह निश्चय किया कि सभा में पुराने नेताओं के बिना पूछे अपना कार्यक्रम बनावें और चलें। हमने यह भी सोच लिया कि अपनी कोई योजना किसी को नहीं बताएंगे, यहॉं तक कि सावरकर जी को भी नहीं।

(45) मैंने अपने दैनिक पत्र ‘अग्रणी’ में हिन्दू-महासभा की इस नीति और वृद्ध नेताओं के कार्यो की आलोचना प्रारम्भ की और हिन्दू-संगठन के इच्छुक नवयुवकों का आह्वान किया कि वे हमारे कार्यक्रम को अपनाएँ।

(46) नया कार्यक्रम बनाने के लिए मेरे पास दो मुख्य मार्ग थे, जिन्हें मैं आरम्भ करता। पहला तो यह था कि शान्तिपूर्वक गांधी जी की प्रार्थना-सभा में प्रदर्शन किए जाएं, जिससे उनकों यह ज्ञान हो जाए कि हिन्दू सामूहिक रूप से उनकी नीति का विरोध करते हैं। अथवा प्रार्थना-सभाओं में, जिनमें वे हिन्दू विरोधी प्रचार करते थे, अपने विरोध से गड़बड़ फैलाई जाए। दूसरा यह कि, हैदराबाद के विषय में आन्दोलन प्रारमभ किया जाए, जिससे हिन्दू भाई-बहनों की यवनों के अत्याचार से रक्षा हो। ये कार्यक्रम गुप्त रूप से ही चल सकते थे और वह भी एक व्यक्ति की आाज्ञा का पालन करने पर । इसलिए हमने यह निर्णय किया कि यह योजना केवल उन्हीं को बताई जाए, जिनका इस मार्ग पर विश्वास हो और जो इस विषय में प्रत्येक आज्ञा का पालन करने को तत्पर हों।

(47) मैंने यह सब विस्तार से इसलिए बताया है कि मुझ पर दोष लगाते हुए कहा गया है कि मैंने सब कुछ सावरकर के इशारे पर किया, स्वयं अपनी इच्छा से नहीं। ऐसा कहना कि मैं सावरकर जी पर निर्भर था, मेरे व्यक्तित्व का, मेरे कार्य का और निर्णय की क्षमता का अपमान है। यह सब मैं इसलिए कहा रहा हूॅं कि मेरे विषय में जो भ्रान्त धारणाएॅं हों, वे दूर हो जाएॅं। मैं इस बात को दोहराता हूॅ कि वीर सावरकर को मेरे उस कार्यक्रम का तनिक भी पता नहीं था, जिस पर चल कर मैने गांधी जी का वध किया। मैं इस बात को भी दोहराता हूॅ कि यह निरा झूठ है कि आपटे ने मेरे सामने या मैंने स्वयं बडगे को कहा कि हमें सावरकर जी ने गांधी, नेहरू और सुहरावर्दी को मारने की आज्ञा दी है। यह भी सच नहीं है कि हम ऐसी किसी योजना या षड्यन्त्र के बारे में श्री बडगे के साथ सावरकर जी के अन्तिम बार दर्शन करने गए हों और उन्होंने हमें आर्शीर्वाद के ये शब्द कहे हों ‘सफल हो और वापिस लौटे-यशस्वी हों!’ यह असत्य है कि आपटे या मैंने बडगे को कहा कि सावरकर ने हमें कहा है कि गांधी जी के सौ बरस पूर्ण हो चुके है, इसलिए तुम अवश्य सफल हो आओगे। मैं न तो इतना अंधश्रद्ध था कि सावरकर की भविष्यवाणी के आाधार पर कार्य करता और न इतना मूर्ख था कि ऐसे भविष्य-कथन पर भरोसा करता।

भाग 2: गांधी जी राजनीति का क्षय-दर्शन

उपभाग-1

(48) 30 जनवरी,1948 की घटना का कारण राजनैतिक और केवल राजनैतिक था। मैं इस बात को सविस्तार बताऊॅगा। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं थी कि गांधी जी हिन्दू-मुस्लिम और अन्य धर्मो की पवित्र पुस्तकों का अध्ययन करते थे या वे अपनी प्रार्थना में गीता, कुरान और बाईबिल से श्लोक पढ़ते थे। सब धर्मो की पुस्तकें पढ़ना मैं बुरा नहीं समझता था। भिन्न-भिन्न धर्म-ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन करना में गुण समझता हूूॅ। मेरे मतभेद के कारण और थे।

(49) उत्तर में वायव्य सीमा प्रान्त से लेकर दक्षिण में कुमारी अन्तरीप तक और कराची से आसाम तक इस सारी भूमि को मैं अपनी मातृभूमि मानता रहा हूॅ। इतने विशाल देश में प्रत्यक धर्म के लोग रहते हैं। मैं समझता हूॅ कि उन सबको अपने धर्म पर चलने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। भारत में हिन्दुओं की संख्या सबसे अधिक है। इस देश से बाहर ऐसा कोई स्थान नहीं है, जिसे हम अपना कह सकें। भारतवर्ष प्राचीनकाल से ही हिन्दओं की मातृभूमि है और पुण्यभूमि भी। हिन्दुओं के कारण यह देश प्रसिद्ध हुआ। कला, विज्ञान, धर्म एवं संस्कृति में इसको जो ख्यााति मिली, वह भी हिन्दुओं के कारण मिली। हिंदुओं के पश्चात् यहॉं मुसलमानों की जनसंख्या सबसे अधिक है। मुसलमानों ने दसवीं शताब्दी से यहॉं प्रवेश करना आरम्भ किया और भिन्न-भिन्न स्थनों पर अपने राज्य स्थापित करके भारत के बहुत बड़े भाग पर अपना आधिपत्य जमा लिया।

(50) अंग्रेजों के भारत में आने के पहले ही हिन्दू और यवन शताब्दियों के अनुभव के पश्चात् यह जान चुके थे ििक मुसलमान यहॉं राजा बनकर नहीं रह सकते और न ही उन्हें यहॉं से निकाला ही जा सकता है। दोनों यह जानते थे कि दोनों को स्थाई रूप से यहॉं रहना है। मराठों की उन्नति, राजपूतों के विद्रोह और सिखों की शक्ति के कारण मुसलमानो ंका आधिपत्य बहुत निर्बल हो चुका था। वैसे तो मुसलमान तब भी यहॉं राज्य जमाए रखने का इरादा किए हुए थे, परन्तु अनुभवी लोग जानते थे कि ऐसी आशाएॅं निरर्थक है। दूसरी ओर, अंग्रेज हिन्दुओं और मुसलमानों से युद्ध में जीते हुए थे और नीति में इन दोनों से अधिक निपुण थे। उन्होंने अपनी योग्यता और राज्य-प्रबन्ध से जनता के जीवन और सम्मान को सुरक्षित किया। हिन्दू और मुसलमान, दोना ने उनको यहॉं का राजा स्वीकार कर लिया। हिन्दुओं और मुसलमानों में कटुता तो पहले से ही थी। अंग्रेजों ने कटुता का लाभ उठाया और अपने राज्य को अधिक समय तक जमाए रखने के लिए हिन्दू और मुसलमानों की परस्पर कटुता को और बढ़ावा दिया । कांग्रेस , इस ध्येय से बनाई गई थी कि जनता को उसके अधिकार दिलाए जायें। मेरे मन में प्रारम्भ से ही, जब मैं कार्य क्षेत्र में उतरा, वे विचार बहुत दृढ़ हो गए थे कि विदेशी राज्य को समाप्त करके उसके स्थान पर अपना राज्य स्थापित किया जाना चाहिए।

(51) मैने अपने लेखों और भाषणों में सदा यही बात कही है कि चुनाव के समय या मन्त्रीमण्डल बनाते अथवा अन्य ऐसे कार्यो में सम्प्रदाय का प्रश्न नहीं उठाना चाहिए। स्पष्ट रूप से समझने के लिए आप हिन्दूू-महासभा के बिलासपुर के अधिवेशन के प्रस्तावों को देख सकते हैं, जो आगे दिए भी गए है। (प्रस्ताव पढ़े गए परिशिष्ट देखिए) कांग्रेस के नेतृत्व में यह विचाार दृढ़ होता जा रहा था, परन्तु मुसलमानों ने अग्रसर होकर इसमें भाग नहीं लिया। पीछे वे अंग्रेजों की चाल में आ गए। हिन्दू और मुसलमानों में फूट डालकर ही अंग्रेज यहॉं राज्य कर सकते थे। अंग्रेजो ने उनकी सहायता की और उनसे प्रोत्साहित होकर मुसलमान यह अभिलाषा करने लगे कि हिंदुओं पर आगे उनका आधिपत्य पुनः हो सकेगा। यह अभिलाषा प्रथम बार 1906 में प्रकट हुई, जब वाइसराय लार्ड मिंटों का संकेत पाकर मुसलमानों ने हिन्दुओं से अलग चुनाव के अधिकार मॉगें और अंग्रेजों ने धूर्ततापूर्वक यह कहकर अलग चुनावों को स्वीकार कर लिया कि ऐसा करने से अल्पसंख्यक अर्थात् मुसलमानों के अधिकार सुरक्षित हो जाएंगे। कांग्रेस ने पहले तो इसका थेड़ा-सा विरोध किया, परन्तु 1934 में उसने इस प्रस्ताव को पास कराने में अप्रत्यक्ष सहायता की । कांग्रेस ने कहा- हम इस विषय में न ‘हॉं कहते है और न ‘ना’।

(52) इस प्रकार देश के विभाजन की माँग की नींव पड़ी और नींव पड़ते ही यह मॉंग बढ़ी। जो प्रारम्भ में जरा-सी बात थी, उसने अन्त में पाकिस्तान का रूप धारण कर लिया। वास्तविक गलती तो यह हुई कि हम सबने यह सोचा, कि किसी प्रकार सब मिलजुलकर अंग्रेजों को निकाल दें, फिर आपस के मतभेद स्वयं ही मिट जाएंगे।

(53) सिद्धान्ततः मैं चुनाव के अधिकारों के विभाजन के विरूद्ध था, परन्तु हमें उस समय यह सहन करना पड़ा, फिर भी मैंने इस बात पर जोर दिया कि दोनों जातियों की संख्या के अनुसार ही सदस्य लिए जाएं। क्रमश.................2

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