मंगलवार, 4 जून 2013

मूर्तिपूजा

       
प्रश्न -    मूर्तियां क्या हैं।
उत्तरः-    मूर्ति, प्रतिमा, बुत या स्टेच्यु यह सब किसी तत्व या पदार्थ से निर्मित निर्जीव जड़ आकृतियां होतीं हैं।
अर्थात् चेतना से रहित, निर्जीव, जिनमें कोई क्रिया (हलचल) स्वतः नहीं होती है। बिना किसी बाह्य बल के लगाये।
 यह पदार्थ कुछ भी हो सकते हैं। जैसे- धातुयें, पत्थर, काष्ठ, मृतिका आदि।
प्रश्न -    पूजा,पूजन क्या है।
उत्तरः-    पूजा, अर्चना, आराधना, साधना यह सब उस परमात्मा (ईष्वर) की अनुभूति प्राप्त करने की क्रियायें या साधन हैं। सम्पूर्ण जगत् में अनेक धर्म, संप्रदायों, मत्, पंथो के कारण अलग-अलग पूजा पद्धतियां प्रचलन में हैं।
प्रष्न -    क्या मूर्तियों में शक्ति होती है।
उत्तरः-    जी नहीं, मूर्तियां शक्तिहीन होतीं हैं। क्योंकि वे जड़ पदार्थों से निर्मित चेतना शून्य होती है।
प्रष्न -     फिर लोग एैसी मूर्तियों की पूजा क्यों करते हैं। जो स्वयं की रक्षा नहीं कर सकतीं हैं फिर ये तुम्हारी रक्षा कैसे कर सकती हैं।
उत्तरः-    वास्तव में लोग मूर्तिपूजा नहीं करते हैं मूर्तियां तो केवल पूजा पद्धति में प्रयुक्त एक साधन (सामग्री) है। पूजा तो केवल उस परमात्मा (ईष्वर) की ही होती है। जो कि सर्वषक्तिमान इस ब्रम्हाण्ड की परम सत्ता है। वह निराकार है।
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    उदाहरणः-
            किसी मल्ल, या पहलवान से पूछो कि अखाड़े में जो मुगदर रखे हुये होते हैं।
क्या उनमें शक्ति होती है!
        उसका उत्तर होगा      -नहीं
    तो फिर शक्ति किसमें है उसका उत्तर होगा कि मूझमें ।
    जी शक्ति तो उस पहलवान में है। हममें है। पर इसको (शक्ति को) सिद्ध करने के लिये इन साधनों (मुग्दरों) की आवश्कता होती है। इनको घुमाते-घुमाते, साधना करते-करते उसे खुद पता नहीं चलता कब उसकी मांसपेशिया बलशाली हो गईं हैं। और वह शक्तिशाली हो गया है।
    इसी कारण से उन साधनों मुग्दरांे (साधनों) में उसकी आस्था होती है। उनका वह सम्मान करता है।
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    ठीक इसी प्रकार ईश्वर की साधना
पर यह आध्यात्मिक शक्ति की सिद्धि इतनी आसान तो नहीं है जितना कि सुनने में लगता है यह बड़ी ही कठिन साधना होती है। और इस साधना में मूर्ति रूपी साधन का उतना ही महत्व है जितना कि एक पहलवान के लिये उसका अखाड़ा व उसके शक्ति सिद्धि के साधन, इस कारण से मूर्तियों की उपेक्षा बिल्कुल भी नहीं की जा सकती है।


प्रश्न - ईश्वर तो केवल एक है फिर लोग(हिन्दू) अनेक देवी   
देवताओं को क्यों पूजते हैं। एक को क्यों नहीं।
उत्तरः- वास्तव में ईश्वर तो ऐक ही है सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में वह सर्वशक्तिमान है। वह निराकार है। वह सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड में कंण-कंण में ब्याप्त है। परंतु आप तो जानते ही हैं कि अलग-अलग कार्यों को करने के लिये  अलग- अलग योग्यता, कौशल व वेश की आवशकता होती है। किसी भी संस्था को उसका ऑनर (मालिक) कितना भी शक्तिमान क्यों न हो अकेले तो नहीं चला सकता। उस संस्था को चलाने के लिये एक प्रणली (सिस्टम) होती है जिसके निश्चित कार्य के लिये निश्चित कार्यकर्ता होते हैं जो एक ही उद्देश्य की प्राप्ति के लिये निर्देशक के निर्देशन में कार्य करते हैं।
उदाहरण:- 
एक छोटे से स्कूल का ही ले सफाई का कार्य प्रचार्य तो नहीं करते न। शिक्षक का कार्य सफाई कर्मी तो नहीं करते न। 
जी हाँ जो जिस कार्य के लिये उपयुक्त है उसे वह कार्य सौंपा गया है और यदि एैसा नहीं होता तो अब्यवस्थायें फैलतीं हैं। और संस्था का प्रबंधन ठीक से नहीं हो पाता है।
ठीक इसी प्रकार से प्रत्येक कार्य के लिये अलग- अलग देवी देवता नियुक्त किये गये हैं। 

जैसे --न्याय के लिये धर्मराज,
लेखांकन के लिये चित्रगुप्त,
दण्डाधिकारी यमराज,
पत्रकार(संदेशवाहक) नारद,
खजांची कुबेर,
धन की देवी लक्ष्मी,
ज्ञान के लिये सरश्वती/गणेश,
जल के देव वरूण,
पालक विष्णु,
सृजनकर्ता ब्रम्हाजी,
कारीगर(इंजीनियर) विश्वकर्मा जी,
को कार्य सौंपे गये हैं।
                        इसी प्रकार समस्त 33 कोटि के देवी देवताओं को योग्यतानुरूप कार्य सौंपे गये हैं। नाम रूप भले ही अनेक हैं पर है तो इनमें परमात्मा का ही अंश और यह सारी टीम इस ब्रम्हाण्ड के लिये ही तो कार्य कर रही है। तभी तो इस ब्रम्हाण्ड का सफलता पूर्वक प्रबंधन व संचालन हो पा रहा है।
भला आप ही बताईये जो कार्य कारीगर को करना है उसके लिये आप प्रधान मंत्री से करने को कहेंगे क्या। नहीं ना ।
तो फिर जब हमारे पास पूरा का पूरा सिस्टम (प्रणली) है उसके कार्यों विभागधिकारियों के नाम व संपर्क है तो सारे कार्य फिर एक ही से क्यों करवायें ।
यही कारण है कि अलग- अलग आभीष्ट की प्राप्ति के लिये अलग- अलग देवी/देवताओं की पूजा, उपासना की जाती है।
अब आप समझ ही गये होंगे कि जो एक से ही सब काम लेते है वो खुद तो परेशान होते हैं और दूसरों को भी एैसी ही सलाह देकर भ्रमित कर आब्यवस्था ही फैलाते हैं।
हर कार्य योजनाबद्ध तरीके से प्रणाली(सिस्टम) के तहत हो तो उसकी सफलता पर कोई संदेह नहीं होता है।
और हमें गर्व है अपनी सनातन संस्कृति पर जिसमें इतनी बड़ी प्रणली(सिस्टम) ब्यवस्था आदि काल से है। पाश्चात्य जगत् वाले आज से ही सिस्टम की परिभाषा देने में सक्षम हूये हैं। हम सनातन धर्मी इसको जानते भी थे, और उपयोग भी करते थे, आज भी करते हैं।



आज के लिये इतना ही आगे इसी विषय पर लेख जारी रहेगा।
इस विषय पर
आपके अमूल्य विचार व आलोचनाओं का स्वागत है।
        यमराज सिंह परमार

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