स्वर्गीय सुखदेव


स्वर्गीय सुखदेव 





Bhagat  singh          Sukhdew                   Rajguru

सरदार भगत सिंह के साथ फांसी पर लटकाये जाने वाले, उनके अन्यतम साथी स्वर्गीय सुखदेव खास लायलपुर पंजाब के रहने वाले थे। आपका जन्म मि.फाल्गुन सुदी 7,सं. 1862 को पौने ग्यारह बजे दिन को हुआ था। आपके जन्म से तीन महीने पहले ही आपके पिता का देहान्त हो चुका था, इसलिए आपकी शिक्षा-दिक्षा का प्रबंध आपके चाचा लाला अचिन्तराम ने किया था।
पांच वर्ष के बालक सुखदेव को पढ़ने के लिए स्थानीय ‘धनपतमल आर्य-हाई स्कूल‘ में भरती किया गया। यहां आपने केवल सातवी श्रेणी तक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद फिर लायलपुर सनातन धर्म हाई-स्कूल में भेजे गये और सन 1922 में इसी स्कूल में द्वितीय श्रेणी में एंट्रेंस की परीक्षा पास की थी। श्री सुखदेव मेधावी और  तीव्र बु़़़़़द्धीशाली थे। किसी परीक्षा में कभी अनुउर्त्तीण न हुए, वरन प्रति वर्ष अच्छे नंबरो के साथ पास होते गए। आपका स्वभाव बड़ा ही शांत और कोमल था, इसलिए आपके सहपाठी और शिक्षक सदैव आपका आदर और प्यार करते थे। कहते हैं, आपके स्वभाव में उदारता की मात्रा यथेष्ट थी। आप अपने सिद्धांतो में बड़े दृढ़ थे। जो दिल में समा जाती थी, उसे वह सारे संसार के विरोध करने पर भी छोड़ना नही चाहते थे। आप अपनी धुन के पक्के थे। सहपाठियों में जब किसी बिषय को लेकर तर्क-वितर्क उपस्थित होता तो आप बड़ी दृढ़ता से अपना पक्ष समर्थन करते और अंत आपकी अकाट्य युक्तियों के सामने प्रतिद्वंद्वी को मस्तक झुका देना पड़ता। आर्य परिवार में जन्म ग्रहण करने के कारण आपके विचारों पर आर्य समाज का बिशेष प्रभाव था। समाज के सत्संगों में आप बडे़ उत्साह से भाग लिया करते थे। इसके सिवा हवन, संध्या और योगाभ्यास का भी शौक था। कुछ दिनों तक आपने बड़े उमंग से इन धार्मिक क्रियाओं का पालन किया था।
सन् 1919 में पंजाब के कई शहरों में ‘मार्शल ला‘ जारी था। उस समय श्री सुखदेव की उम्र कुल 12 साल की थी और आप सातवी कक्षा में पढ़ते थे। आपके चाचा श्री अचिन्तराम ‘मार्शल ला‘ के अनुसार गिरप्तार कर लिए गए। बालक सुखदेव के मन पर इस घटना का बिशेष प्रभाव पड़ा। लाला अचिन्तराम का कहना है, कि उन दिनोें सुखदेव कभी-कभी जेल में मुझसे मिलने आया करता और अक्सर पूछा करता था कि क्या आपको यहां बहुत तकलीफ दी जाती है। मैं तो किसी को भी सलाम नहीं करूंगा। उसी जमाने में एक दिन शहर भर की सभी पाठशालाओं और विद्यालयों के विद्यार्थियों को एकत्र करके ‘यूनियन-जैक‘ (ब्रिटिश झंडा) का अभिवादन कराया गया था, परंतु श्री सुखदेव इसमें सम्मिलित नहीं हुए थे और अचिन्तराम के जेल से वापस आने पर उन्होंने बड़े गर्व से कहा था कि मैं झंड़े का अभिवादन करने नहीं गया।
सन् 1921 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया। सारे देश में एक विचित्र जाग्रती की लहर दृष्टिगोचर होने लगी। श्री सुखदेव के जीवन में भी एक विचित्र परिवर्तन आरंभ हुआ। स्वतंत्र प्रकृति और उच्च विचार के होने पर भी श्री सुखदेव को कपड़े-लत्ते का बड़ा शौक था। वे अच्छे और कीमते कपड़े बहुत पसंद करते थे। हैट-कोट और टाई-कालर का भी शौक था; परंतु इस आंदोलन के आरंभ होते ही उन्होंने विलायती और विलायती ढंग के कपड़ों का सदा के लिए परित्याग कर दिया। पहनने के लिए कुछ खद्दर के कपड़े बनवाए और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें अपने हाथ से साफ कर लिया करते। इसके साथ ही इसी समय से हिंदी भाषा सीखने और इसके प्रचार का भी शौक हुआ। वे अपने साथियों को हिंदी भाषा की महात्ता और उसके सीखने की आवश्यकता बताया करते थे। उनका विचार था कि देश के उत्थान के लिए एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है और उस आवश्यकता की पूर्ति केवल हिंदी भाषा ही कर सकती है।
हम ऊपर लिख चुके हैं कि असहयोग आंदोलन ने श्री सुखदेव की काया-पलट कर दी थी। सादगी उनके जीवन का ध्येय बन गया था और शायद राष्ट्र-सेवा ही जीवन का ध्येय बन चुकी थी। इधर माता और बहन विवाह की चिन्ता करने लगीं, परंतु चाचा इसके विरू़द्ध थे। क्योंकि आर्य समाज के सिद्धांत के अनुसार पच्चीस वर्ष के पहले लड़के की शादी करना उन्हें पसंद न था। माता जब कहती कि, सुखदेव मैं तुम्हारी शादी करूगी और तुम घोड़ी पर चढ़ोगे तो श्री सुखदेव सदैव यही उत्तर देते कि मैं घोड़ी पर चढ़ने के बदले फांसी चढ़ूंगा। 
सन् 1922 में श्री सुखदेव एंटेªंस की परीक्षा पास कर लेने पर लाला अचिन्तराम जेल में थे। उन्होंने वहीं से आज्ञा दी कि तुम उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए लाहौर के डी. ए. वी. कालेज में नाम लिखा लो; परंतु श्री सुखदेव ने ऐसा नही किया। उन्होने चाचा की इच्छा और आदेश के विरूद्ध ‘नेशनल कालेज‘ में नाम लिखाया यहीं उनक परिचय सरदार भगत सिंह आदि से हुआ। इनकी मंडली में पांच सदस्य थे। इन लोगो में परस्पर बड़ा ही प्रेम था। विद्यालय के अन्य विद्यार्थी तथा कई शिक्षक इन्हे ’पंच पाडव’ के नाम से याद किया करते थे।
श्री सुखदेव को एक बार यूरोप की यात्रा करने की बड़ी इच्छा थी। इसी इच्छा से आप स्वामी सत्यदेव के साथ भी कुछ दिनों तक रहे और वहां के विभिन्न देशों की भाषायें सीखने का विचार किया। परंतु कई कारणों से आपको सफलता न मिली। फलतः तीन महीने बाद आपने स्वामी सत्यदेव का साथ छोड़ दिया।
यूरोप-यात्रा के अतिरिक्त श्री सुखदेव और उनके कई सहपाठियों को पहाड़ी सैर का बड़ा शौक था। फलतः सन् 1920 के ग्रीष्मावकाश में इन लोगों ने कांगड़ा के पहाड़ी प्रदेशों का पैदल भ्रमण करने का विचार किया। इस यात्रा में श्री यशपाल भी इनके साथ थे। वापस आने के समय एक दिन इस पार्टी को दिन भर में 42 मील की यात्रा करनी पड़ी और महीकरन से कुल्लू तक 34 मील की यात्रा रात को एक बजे तक करनी पड़ी।
साइमन कमीशन के आने पर पंच पांडव ने निश्चय किया कि एक समारोह पूर्वक प्रदर्शन किया जाये। इसके लिए काली झंडियां तैयार की जा रहीं थी। सरदार भगत सिंह आदि पांच-छः सज्जन अपने किसी मित्र के घर पर उक्त तैयारी में लगे थे। लाला केदारनाथ जी सहगल भी थे। परंतु उन्हे नींद आ गई और वे सो गए। सरदार भगत सिंह ने कहा, मुझे नीद आ रही है,मै थोड़ा सो लंू। परंतु मित्रों ने इन्हें सोने न दिया। इसी समय उन्हे इस बात का ख्याल आया कि शायद पुलिस हमारे घर पर छापा मारे तो सुखदेव उस मकान में गिरप्तार हो जायेंगे। इसलिए एक आदमी श्री सुखदेव को सावधान करने के लिए सरदार भगत सिंह के घर भेज दिया। थोड़ी देर बाद उसने खबर दी कि पुलिस सरदार भगत सिंह के घर पहंुच गया।
पुलिस ने श्री सुखदेव से बहुत से प्रश्न किए। परंतु उन्होंने किसी प्रश्न का भी उत्तर नही दिया। अंत में पुलिस ने उन्हे गिरप्तार कर लिया और दिन के 12 बजे तक कोतवाली में बिठा रखा। इसके बाद कुछ लोगों ने वहां जाकर इन्हें झुड़वाया था। जब पंजाब में एक विप्लवी-पर्टी कायम करने की सलाह हुई, तो सरदार भगत और श्री सुखदेव ने यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि पंजाब के नवयुवको को राजनीतिक शिक्षा दी जानी चाहिए। सरदार भगत सिंह ने प्रचार का कार्य आरंभ किया। इसके बाद यह कार्य श्री सुखदेव को सौंपा गया और आप बहुत दिनों तक बड़ी सफलता के साथ कार्य करते रहे। आपका यह सिद्धांत था कि डपदम जीम ूवता ंदक जीपदम जीम चतंपेम  अर्थात् मैं केवल कार्य करना चाहता हंू, प्रशंसा नहीं चाहता।
इसके बाद 15 अप्रैल 1929 को श्री किशोरीलाल और प्रेमनाथ के साथ सुखदेव की गिरप्तारी हुई। इसके बाद का वर्णन सरदार भगत सिंह के परिचय में आ गया है, इसलिए उनके पुनरोल्लेख की आवश्यकता नहीं है।
अंत में 7 अक्टूबर, 1930 को आपको फांसी की सजा सुनाई गई और 23 मार्च 1931 को 24 वर्ष की उम्र में आप फांसी पर लटका दिए गए।

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