बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

स्वर्गीय शिवराम राजगुरु

स्वर्गीय शिवराम राजगुरु

इन्ही बिगड़े दिमागों में घनी खुशियों के लच्छे हैं!
हमें पागल ही रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं! !

वीर भूमि महाराष्ट्र के विख्यात नगर पूना के पास ‘चाकन‘ नाम का एक छोटा सा गांव है। जिस समय महाराष्ट्र केशरी छात्रपति श्री शिवाजी महाराज ने अपना ‘हिन्दू-राज्य‘ स्थापित किया था, उस समय तक ‘चाकन‘ उस प्रान्त की राजधानी था। श्री शिवाजी महाराज के प्रपौत्र श्री साहू जी के राजत्व काल में चाकन के एक पंडित, कचेश्वर नामक ब्राम्हण ने सारे देश पर अपने पांडित्य का सिक्का जमाया था। एक बार राज्य प्रबंध संबंधी किसी कार् 51; के लिए श्री साहू जी को चाकन आना पड़ा। वहां आपकी उपर्यक्त पंडित जी से भेंट हुई। आप उनकी विद्वता पर इतने मुग्ध हुए कि उन्हें अपना गुरु मान लिया और ‘राजगुरु‘ की उपाधि से विभूषित किया। उसी समय से राजगुरु इस वंश की पदवी हो गई। श्री शिवराम हरिजी राजगुरु इसी प्रतिष्ठित वंश के वंशधर थे।
पंडित कचेश्वर जी के संबंध में एक किंवदंती मशहूर है। कहते है, उन दिनों अवर्षण होने पर लोग पंडितों को जप करने पर विवश किया करते थे। और जब तक वर्षा नहीं हो जाती थी, तब तक उनके पिण्ड नहीं छोड़ते। एक बार भीषण अवर्षण आरंभ हुआ। सतारा के सभी बड़े-बड़े पंडित जप चुके थे। अंत में पंडित कचेश्वर जी की बारी आई। विवश होकर उन्होंने भी जप आरंभ कर दिया और आपके जप आरंभ करने के दो-तीन दिन बाद ही पानी भी बरस गया। आसपास के चौरासी गांवों में वर्षा हुई। उसी समय से इस ‘राजगुरु’को अब तक प्रतिवर्ष कुछ न कुछ प्राप्त होता है। यह नियम श्री साहू जी महाराज के समय से ही चला आता है।
पंडित जी के दो पुत्र थे, जिनमें छोटे तो वहीं सतारा में बस गए और बड़े पूना के पास खेड़ा गांव में आकर रहने लगे। यही खेड़ा श्री शिवराम का जन्म स्थान है। आपके पिता श्री हरि नारायण जी राजगुरु के दो स्त्रियां थीं। श्री हरि नारायण जी की दूसरी स्त्री से दो लड़के हुए। जिनमें बड़े श्री दिनाकर हरिनारायण हैं और छोटे श्री शिवराम राजगुरु थे।
शिवराम का जन्म सन् 1909 में हुआ था। आप लड़कपन में बड़े ढीट और जिद्दी थे। सन् 1915 में जब शिवराम की उम्र 6 वर्ष थी, आपके पिता का देहान्त हो गया। आपके बड़े भाई श्री दिनकर जी उन दिनों पूना में नौकरी करते थे; इसलिए पित की मृत्यु के बाद आप सपरिवार पूना में रहने लगे। शिवराम प्रारंभिक शिक्षा के लिए मराठी पाé6;शाला में भेजे गए। परंतु परंतु उनकी वहां तबीयत पढ़ने-लिखने में नहीं लगती थी। वे अपना अधिकांश समय अपने सहपाठियों के साथ खेलने-कूदने में ही बिताया करते थे। अभी मराठी की आठवी श्रेणी में ही थे कि सन् 1924 में जब आपकी उम्र चौदह वर्ष थी, एक दिन बड़े भाई ने की कि खेल-कूद छोड़कर पढ़ने-लिखने में जी लगाओ। इससे आपने भयभीत होकर आपने पाठ्य पुस्तक के एक उपन्यास को लेकर पढ़ना आरंभ कर दिया। इस पर बड़े भाई और ंिबगड़े और कहा कि अगर तुम्हें पढ़ना नहीं है तो घर से निकल जाओ।
वही हुआ, शिवराम घर से निकल पड़े। उस समय जेब में केवल 9 पैसे थे। रात इन्होंने पूना-स्टेशन के मुसाफिर खाने में बिताई। सबरे वहां से उठे और बिना सोचे-विचारे अपने जन्म स्थान खेड़ा पहँुचे। परंतु गॉव में इसलिए प्रवेश नहीं किया कि लोग पहचान लेंगे। सारी रात बिना खाए-पिए एक मंदिर में पड़े रहे। दूसरे दिन नारायण नाम के एक दूसरे गांव में पहंचे और वहां भी गांव से बाहर एक कुंए पर रात बिताई। घर से जो 9 पैसे लेकर चले थे, उनके आम खरीद कर खा लिए थे। तीसरे दिन भूख के मारे अंतड़िया कुलबुला रहीं थी। कुंए के नीचे एक पक्षी का खाया हुआ आम पड़ा था। आपने उठाया और गुठली समेत निगल गये। इस गांव के स्कूल मास्टर को इन पर दया आई। उन्होंने इन्हे पास रख लिया। परंतु इन्हें अगर कहीं रहना ही होता तो घर छोड़ने की क्या जरूरत थी ? दूसरे दिन बिना कहे-सुने उठे और एक तरफ चल दिए। भूख लगने पर पेड़ों की पत्तियां चबा लेते और रात को किसी चट्टान या मैदान में सो जाते। एक दिन एक गांव के बाहर मंदिर के पास खेत में सो रहे थे, कि कुछ आदमियों ने दूर से देखा और प्रेत समझकर ईंटें मारने लगे। जब उठे और पूछा कि मुझे क्यों मारते हो ? तब उन लोगों का भ्रम दूर हुआ। अंत में इन्होंने 25;हा कि मुझे भूख लगी है, कुछ खाने को दो ! खैर उन लोगों ने कुछ खाने को दिया। खा-पीकर आप आगे बढ़े और कई दिनों में, इसी तरह 130 मील की यात्रा करके नासिक पहंुचे। वहां एक साधु की कृपा से, एक क्षेत्र में एक वक्त बराबर खाने का प्रबंध हो गया। रात को साधु स्वयं कुछ खाने को दे दिया करते। रात को सोने के लिए घाट की सीढ़ियां थी।
इसी तरह चार दिन बीत गये। एक दिन पुलिस का एक सिपाही आया और पकड़कर थाने ले गया। वहां पूछताछ होने पर आपने बताया कि विद्यार्थी हँू, और संस्कृत पढ़ने की इच्छा से यहां आया हँूं।
इस तरह जब वहां से छुटकारा मिला तो आपने नासिक भी छोड़ा और घूमते फिरते झांसी पहंुचे। परंतु वहां भी तबीयत नहीं लगी, इसलिए बिना टिकिट के ही रेलगड़ी पर सवार होकर कानपुर चले आए। कानपुर के स्टेशन पर एक महाराष्ट्र के एक सज्जन ने आपको भोजन कराया और अपने साथ लखनउ ले गये। वहां से लखीमपुर-खीरी होते हुए आप पंद्रहवें दिन काशी पहंुचे। यहां आपको कीचड़ में पड़ा हुआ एक पैसा मिला, जिसे उठाकर बड़े यत्न से धोती के कोने में आपने बांध लिया।
काशी आकर आप अहल्या घाट पर रहने लगे। कई दिनों के बाद एक क्षेत्र में भोजन का भी प्रबंध हो गया। एक पंडित जी की पाठशाला में जाकर संस्कृत पढ़ने लगे और भाई को भी खबर दे दी मै काशी आ गया हंू और संस्कृत पढ़ना आरंभ कर दी है। भाई पांच रुपये मासिक भेतना आरंभ कर दिया।
परंतु क्षेत्र में भोजन करना आपको पसंद नहीं था, इसलिए भोजन का प्रबंध सहपाठियों के साथ कर लिया। परंतु यह सिलसिला भी अहुत दिनों तक नहीं चल सका; क्योंकि गुरुजी से अनबन हो जाने के कारण पाठशाला छोड़ देनी पड़ी। इसके साथ ही पढ़ने में दिल भी बहुत कम लगता था। पाठशाला छोड़ने पर अखबार पढ़ने और कुश्ती लड़ने का शौक हुआ; परंतु भोजन की फिर बड़ी तकलीफ हुई और यहां तक नौबत पहंुची, कि फिर घास और पत्तियों का सहारा लेना पड़ा।
अंत में काशी से तबीयत उचटी तो नागपुर पहंच 404; उद्देश्य था, लाठी और गदका के खेल सीखना। सन् 1928 में फिर कानपुर चले आए। अब तक राजनीति से कोई संबंध न था, परंतु यहां आने के थोड़े दिनों के बाद ही आपके विचारों में परिवर्तन हो गया और आप एकाएक लापता हो गए। अंत में लाहौर षड़यंत्र केस में गिरप्तार होने पर ही लोंगो को आपका पता मिला।

लोकप्रिय पोस्ट

मेरी ब्लॉग सूची