सोमवार, 16 अप्रैल 2012

हिन्दू मेरी भौगोलिक पहचान



                 हिन्दू  मेरी  भौगोलिक पहचान


इतिहास तो यही बताता है कि सारे विश्व को भारत से जाकर ही मानव ने बसाया। अर्वस्थान में शुक्राचार्य गये, मिश्र में कण्व गये। आग्नेय दिशा में अगस्ति गये। कौण्डिन्य गये। अमेरिका अनाम अयंगार गये। हमें कोई प्रथक नाम नहीं था। सारी प्रथ्वी ही हमारा घर था। इसी कारण मनु ने जब धर्म को पुस्तकबद्ध किया तो उसे नाम दिया ’’मानव धर्म शास्त्र’’।
धीरे-धीरे अनेक विचारधारायें अस्तित्व में आयी। मानव समूहों को पृथक-पृथक परिचय प्राप्त हुआ। हमें भी उस धारा में ’’हिन्दू’’ नाम मिला। वह स्वभाविक भी था। हम जिस भूभग में रहते हैं, उसकी सीमायें तो प्रकृति ने ही निधारित कर दी है। ऐसा स्वभाविक निर्धारण तो विश्व के अन्य किसी देश को प्राप्त नहीं है। आकाश संचारी उपग्रहों से लिए गए छाया चित्र यही सिद्ध करते हैं।
हमारे देश की उत्तरी सीमा नगराज हिमालय निर्धारित करता है। हिमाच्छादित होने से उसका हिमालय नाम प्रकृति सिद्ध है। हमारे देश की दक्षिण सीमा सिन्धू अर्थात समुद्र निर्धारित करते है। हिमालय और सिन्धु के बीच बिस्तारित होने से देश को नाम मिला हिन्दुस्थान और उसमें निवास करने वाले हम हिन्दू नाम से सर्वदूर परिचित हो गये। इसमें साम्प्रदायिकता कहॉं है।
जब मानव का जन्म हुआ तो दो वंश प्रमुखता से प्रचलित हुये। सूर्य वंश और चंद्रवंश या इन्दु वंश। राम सूर्य वंशी थे तो ययाति इन्दुवंशी थे। इनके पांच पुत्रों के आधिपत्य में समुद्रवलयांकित संपूर्ण भारत था।इन इन्दुवंशियों के कारण हमें हिन्दू नाम मिला। साहित्य में, ग्रथों में भी हिन्दू का उल्लेख होने लगा। एक प्राचीन ग्रंथ है बृहस्पति आगम। उसमें उल्लेख है-
’’हिमालयात समारभ्य यावत इन्दु सरोवरम्।
   तं देव निर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।’’
हिमालय से प्रारंभ कर इन्दुसरोवर (समुद्र) तक विस्तारित देश के अनुसार चन्द्रमा का जन्म समुद्र मंथन के समय समुद्र से हुआ था अतः समुद्र इन्दु सरोवर कहलाया। यह वैज्ञानिक तथ्य भी है। सूर्य से पृथ्वी अलग होने के पश्चात पृथ्वी स्तर में उथल-पुथल के कंारण जो भूअंश अलग हुआ वही चंद्रमा है एवं रिक्त स्थान में समुद्र बना। 
हिमालय औार सागर हमारे स्मृति में ऐसे समा गये हैं कि साहित्यिक भी उन्हें भूल नहीं  पाते हैं। चाहे वह रचना नाटक हो या काव्य। कवि कालीदास अपने कुमारसंभव नाटक का प्रारंभ ही हिमालय और सागर से करते हैं। वे कहते हैं-
अस्त्युतरस्यां दिशि देवतात्मा हिमलयोनाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिमवगाहा स्थितः पृथिव्यां इव मानदण्डः।।
उत्तर दिशा में देवतात्मा नगाधिराज हिमालय है। वह पूर्व और पश्चिम समुद्रों में अवगाहन करता हुआ (संसार के सामने) पृथ्वी के मानदण्ड के रूप में (छाती तानकर) खड़ा है। एक स्थान पर राम का वर्णन करते हुए भी वे हिमालय और सागर को भूल नहीं सकते। कैसे हें उनके राम
समुद्र इव गांभिर्ये धैर्येण हिमवान इव।
गंभीरता ूें राम समुद्र के सामने हैं एवं उनका धैर्य हिमालय जैसा है, ऐसा वे वर्णन करते हैं। गोस्वामी तुलसी दास जी भी ऐसा ही वर्णन राम का करते हैं-
हिमगिरि कोटि अचल रघुवीरा सिन्धु कोटिशत सम गंभीरा ।
इस प्रकार मेरा जन्म हिमालय एवं सिन्धु के बीच का होने से 
मैं हिन्दू हूॅं।

लोकप्रिय पोस्ट

मेरी ब्लॉग सूची