गुरुवार, 15 मार्च 2012

स्वर्गीय चन्द्रशेखर ‘आजाद’

            स्वर्गीय चन्द्रशेखर ‘आजाद’
काशी के बैजनाथ टोला में स्वर्गीय चन्द्रशेखर आजाद का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम था पं. बैजनाथ। थोड़ी से ही उन पर अपने देश को आजाद करने की धुन सवार हो गई थी। 1921-22 में असहयोग आंदोलन के समय वह अहिंसा वादी स्वयंसेवक थे, गिरप्तार कर जब वे अदालत लाये गये, तो मैजिस्ट्रेट ने उनसे पूँछा-तुम्हारा नाम क्या है ? आजाद ने अपनी आजादी के आवेश में उत्तर दिया-मेरा नाम आजाद है, पिता का नाम ‘स्वतंत्र’; निवास स्थान ?-जेलखाना हैं! भला खरेघाट; आई0 सी0 एस0 जैसा नृसंस मजिस्ट्रेट एक कोमलमति बालक के मुख से निकली हुई ऐसी बातें कैसे सहन कर सकता था ? उसने आजाद को 15 बेंत लगाने की आज्ञा दी। बेंत लगाने के लिए कोमल शरीर को बांधा जाने लगा; परंतु उन्होंने कहा-बांधते क्यों हो ? मारो, मै खड़ा हंू। उस दृश्य को देखने वाले कांप गए। क्या सचमुच बेंत लगाए जायेंगे ? हां बात सच थी। सड़ा-सड़ बेंत पड़ने लगे और प्रत्येक बार पर आजाद के मुख पर ‘वन्देमातरम्’, ‘गांधी जी की जय’ आदि के नारे निकलने लगे। परंतु अंत में वह कोमल बालक मूर्छित होकर गिर पड़ा। उस समय यह केवल चौदह बर्ष के थे। तभी से आप आजाद के नाम से विख्यात हुए।
इन बेंतों का आघात उनके शरीर पर नहीं, वरन उनकी आत्मा पर लगा और कहा जाता है कि वह उसी दिन से विद्रोही हो गए। इस अमानुसिक दण्ड का उनके मन पर बुरा प्रभाव पड़ा।
सन् 1921 का असहयोग आंदोलन शांत था, पर कहा जाता है, आपने हिंसात्मक क्रांति की शरण ली। यहां राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और शचीन्द्रनाथ बख्शी से उनकी मित्रता हुई। ये तीनों अंतरंग मित्र हो गए। प्रत्येक कार्य में इन तीनों का साथ रहता था।
सन् 1926 का वाले जगत-विख्यात काकोरी षड्यंत्र केस में ‘आजाद’ का नाम एक प्रमुख षड्यंत्रकारी के रूप में आया था, किन्तु वह फरार थे। सारा बनारस छान डाला किन्तु ‘आजाद’ आजाद ही रहा। युक्त प्रांतीय सरकार ने उनकी गिरप्तारी के लिए दो हजार रुपये का इनाम भी घोषित किया।
15 दिसम्बर, 1928 की सांडर्स हत्याकांड हुआ। कहा जाता है, कि यह निश्चित किया गया था, कि भगत सिंह और राजगुरु सांडर्स को मारेंगे और और आजाद उनके पार्श्वरक्षक के तौर पर पीछे रहेंगे। सांडर्स को मार चुकने के बाद जब वह डी. ए. वी. कालेज के बोर्डिंग हाउस में जा रहे थे, तब चननसिंह ने उनका पीछा किया। ‘आजाद’ ने उन्हें चेतावनी दी, किन्तु इस पर भी जब वह उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़ा तो आजाद ने उसका काम तमाम कर दिया। इसके बाद से ही पंजाब में आजाद की खोज होने लगी। आजाद, जो इस समय पंडित जी के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे, बड़ी सफाई से गायब हो गए।
सन् 1926 के दिसम्बर मास में वाइसराय की ट्रेन उलट देने का प्रयत्न किया गया। क्रांति के इतिहास मे पहले-पहल बिना तार के, बम से काम लिया गया था। इस संबंध में आजाद, यशपाल और एक फरार अभियुक्त का नाम लिया जाता है।़
कहा जाता है कि लाहौर के दूसरे षड़यंत्र में आजाद ने सरदार भगत सिंह और श्री दत्त आदि को छुड़ाने के लिए किया था। साथ ही यह भी कहा जाता है कि बहावल पुर में धड़का हो जाने के कारण, यह षड़यंत्र सफल न हो सका। उस धड़ाके सिलसिले में बम की परीक्षा करते समय एक प्रमुख क्रांतिकारी भगबतीचरण की लान भी चली गई।
दिल्ली षड़यंत्र केश में भी आजाद का प्रमुख हाथ था, पंजाब गवर्नमेन्ट ने भी आपकी गिरप्तारी के लिए 5,000 रू. का इनाम घोषित किया था और कहा जाता है कि आपका चित्र प्रत्येक बड़े-बड़े स्टेशनों पर चिपकाया गया था, पर सरकारी पुलिस के गुर्गे सन् 1926 से 27 फरवरी 1931 के प्रातः तक पता नही लगा सके थे। ‘आजाद’ ने अंत तक अपनी आजाद-प्रियता को निबाहा। उनकी जीबित अवस्था में पुलिस का कोई भी व्यक्ति उनका शीरीर स्पर्श नही कर सका था। 27 फरवरी,1931 को दस बजे के लगभग इलाहाबाद के कंपनी बाग में एक विश्वासघाती सहयोगी की नीचता के कारण पुलिस की गोलियों का शिकार हुए। उनकी मृत्यु के बाद भी पुलिस के उपस्थित अपसरों को उनसे भय लगता था। समाचार पत्रों को पढ़ने पर पता चलता है कि मृत्यु के बाद भी केवल संदेह के वशीभूत होकर पुलिस वालों ने बंदूक और तमंचों के कई बार उनके शरीर पर दागे थे, तब कहीं वे पास फटक सके।
कुछ लोंगो का कहना कि उनकी मृत्यु के बाद कुछ सरकारी खैरख्वाहों ने उनके मृतक शरीर लातों तक से ठुकराया, कुछ लोंगों का यह भी कहना है कि एक गोरे दर्शक का कुत्ता स्वर्गीय आजाद के लगे हुए घावों से निकला हुआ रक्त चाटकर अपने मालिक को अपनी वफादारी का और समझदारी का परिचय दे रहा था! कतिपय प्रमुख नागरिकों की यह तो आंखों-देखी और कानी-सुनी घटना है कि जब लाश को उठाकर लारी में रखा जा रहा था तो पुलिस वालों ने बड़ी निर्दयता से मृतक शरीर की टांगे पकड़कर घसीटी थी। कुछ सिपाहियों को लाश मोटी होने की शिकायत थी और इसके लिए कहा जाता है, उनके शरीर को गालियां भी दी गई थीं; किंतु ‘आजाद’ के जीवट की वे कभी-कभी प्रसंसा करते सुने गये थे। स्वयं सी. आई. डी. के सुपरिटेंडेंट मि. ब्लंडन ने, जो इस घटना के तुरंत बाद ही सहगल जी की संस्था तथा उनके निबास स्थान की तलाशी लेने आये थे, सहगल जी ने ‘आजाद’ के जीवट की प्रसंसा की। उनका कहना था कि ऐसे सच्चे निशानेबाज उन्होंने बहुत कम देखे है; खासकर ऐसी शंकामय परिस्थिति में खासकर जब तीन ओर से उन पर गोलियो की बर्षा हो रही थी। उन्होने यह भी स्वीकार किया कि यदि पहली गोली उनकी जाघ में न लगी होती, तो पुलिस का एक भी अफसर जीवित नही लौटता, क्योंकि मि. नाटबावर का हाथ पहले ही बेकाम हो चुका था, उन्होंने यह भी बताया कि ‘आजाद’ विप्लवी दल का कोई प्रतिष्ठित नेता-सम्भवतः कमांडर इन चीफ थे। अस्तु-
जिस पेड़ के पीछे ‘आजाद’ ने प्राण विर्सजन किया था वह वृक्ष फूलों से लदा था और पेड़ पर कई जगह गरीबों ने ‘आजाद’ पार्क आदि लिख दिया था, जिसको विधिपूवर्क देहाती लोग पूजा किया करते थे और कुछ ही दिनों में वहां एक मेला प्रायः नित्य ही लगने लगा जिससे कुपित होकर अधिकारियों ने जड़-मूल से उस वृक्ष को उखड़वा दिया कर जलवा दिया। जिस स्थान पर स्वर्गीय ‘आजाद’ का रक्त गिरा था, उसकी मिट्टी कालेज तथा यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी उठा ले गए थे।








लाहौर षड्यंत्र
की
मनोरंजक कार्यवाही


मुकद्मों का संक्षिप्त इतिहास

लाहौर षड्यंत्र केश के लिए राय साहब पंड़ित श्रीकृष्ण नाम के एक स्पेशल मैजिस्ट्रेट की नियुक्ति हुई थी जिसकी कार्यवाही 10 जुलाई 1929 को उनकी अदालत में आरंभ हुई। षड्यंत्र का यह मामला देश  के चुने हुए 24 जबानों पर चालाया गया था। जिनमें 5 लापता थे और जिनके विरूद्ध उनके पकड़े जाने पर बाद में एक नये षड़यंत्र केश का स्वांग रचा गया था जो ‘दूसरे लाहौर षड्यंत्र केस’ के नाम से प्रसिद्ध है। फरार अभियुक्तों में से कुछ के पकड़े जाने पर फिर एक नया षड़यंत्र केस भी चालाया गया।
अभियुक्तों पर सन् 1928 की 17 दिसम्बर को लाहौर के असिस्टेन्ट सुपरिंटेंडेंट मि. साडर्स और हेड कांस्टेबल चनन सिंह की हत्या, लाहौर तथा सहारनपुर में बम फैक्ट्रियां स्थापित करने सन् 1929 की 8 अप्रैल को असेंम्बली में बम फेकनें और इसी प्रकार की अन्य षड्यंत्रकारी कार्यवाहियों के अभियोग लगाए गए थे। इन अभियोगों को साबित करने के अभिप्राय से गवर्नमेंट की ओर से 600 गवाहों की एक लिस्ट पेश की गई थी।
इस मनोंरंजक, किन्तु ऐतिहासिक मुकद्मे की कार्यवाही प्रारंभ होने के पहले ही श्री बटुकेश्वर दत्त तथा सरदार भगत सिंह- जो इन मामलों के भी अभियुक्त बनाये गए थे; उस समय असेंम्बली बम-केश के निर्णय के अनुसार आजन्म काले पानी की सजा भोग रहे थे-ने, राजनैतिक कैदियों के साथ जेल में दुर्वव्यहार होने कारण अनसन (भूख-हड़ताल) शुरू कर दिया था। सहानुभूति में अन्य अभियुक्तों ने भी अनसन शुरू कर दिया और फलतः इन अभियुक्तों की निर्बलता के कारण 26 जुलाई 1929 को मुकद्में की सुनवायी मुल्तवी कर देनी पड़ी। इसी प्रकार एक नई अड़चन पंश होने के कारण 24 सितम्बर 1929 तक मुकद्में की पेशी स्थगित होती रही। इन योद्धाओं के अनसन-व्रत ने समूचे देश में एक विचित्र हलचल उपस्थित कर दी। यहां तक कि स्वेच्छाचारी तक को अंत में परास्त होकर इन वीरों की मांगों के सामने नत-मस्तक होना पड़ा। इस ऐतिहासिक अनसन व्रत में घुल-घुल कर स्वर्गीय यतीन्द्रनाथ दास ने 63 दिन के उपवास के बाद प्राण विर्सजन कर दिया था, जिसकी प्रतिक्रिया से एक बार ही घबराकर ब्रिटिश गवर्नमेंटेे को जेल संबंधी कानूनों में परिवर्तन करना पड़ा जिसके परिणामस्वरूप ए, बी और सी क्लास की रचनाएं हुई और इस प्रकार राजनैतिक बंदियों ने यतीन्द्रनाथ दास के प्रत्यक्ष तथा अन्य वीर युवकों के मूक बलिदानों से लाभ दठाया! 
4 फरवरी, 1930 को अधिकांश अभियुक्तों ने फिर अनसन प्रारंभ कर दिया, इस कारण मामला फिर 8 मार्च तक स्थगित कर देना पड़ा। इसके बाद अप्रैल के अंत तक कार्यवाही नित्य-प्रति होती अवश्य रही पर उसको मुकद्मे की कार्यवाही न कहकर, यदि ‘खानापूर्ति’ कहा जाए, तो अधिक उपयुक्त होगा। किराए के सरकारी गवाहों के असली स्वरूप को देशवासियों के समक्ष उपस्थित करना और पुलिस वालों को हद दर्जे का पतित और मूर्ख सिद्ध करते रहना षड़यंत्र केश के सारे अभियुक्तों का एकमात्र उद्देश्य था, जिसे पूर्णरूपेण सफल बनाने में उन्होंने अपनी ओर से कोई कसर उठा नही रखी, जैसा कि इस ‘अदालती कार्यवाही’ के दैनिक विचरण को पढ़ने से पाठको को पता चलेगा।
अभियुक्तों की इन हरकतों से तंग आकर पहली मई, 1930 को वाइसराय ने ‘सन् 1930 का तीसरा आर्डिनेंस’ नाम से एक आर्डिनेंस पास करके येन-केन-प्रकारेण इन नौजावनों को ठिकाने लगाने का निश्चय कर डाला और फलस्वरूप  हाईकोट के तीन जजों का एक ‘स्पेशल ट्रिब्यूनल’ बनाकर इस षड़यंत्र केश की समस्त कार्यवाहियों का अधिकार उसे सौंप दिया गया। ट्रिब्यूनल में मि. जस्टिस टैप, मि. जस्टिस हिल्टन, तथा जस्टिस अब्दुल कादिर रखे गए और मुकदमे की कार्यवाही धुआंधार चलने लगी। वाइसराय का यह आतंक पूर्ण रवैया तथा ‘ट्रिब्यूनल’ का रुख देख और समझकर समस्त अभियुक्तों ने एक स्वर में अदालती ‘स्वाग’ की कार्यवाही में भाग लेने से साफ इन्कार कर दिया। उन्होंने, न तो सरकारी गवाहों से कोई जिरह की और न ही अपनी रक्षा के लिए कोई सफाई पेश की, क्योंकि देश का प्रत्येक नागरिक समझ चुका था, कि क्या अनिष्ट होने जा रहा है। लोहे के विशेष रूप से निर्मित एक बड़े भारी पिजरे में हथकड़ी और बेड़ियों से जकड़े हुए अभियुक्त साधारण दर्शकों की भांति बैठे-बैठे न्याय के नाम पर रचे गये इस ड्रामे का लुप्त उठाते और कहकहे लगाते रहे। सन् 1930 की 7 अक्टूबर का इस कानून के नाम पर रचे गए ड्रामे का पटाक्षेप हो गया और इसके फैसले के अनुसार सरदार भगत सिंह, श्री सुखदेव और श्री राजगुरु को फांसी की सजा; सर्व श्री किशोरी लाल, महावीर सिंह, विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव और कमल नाथ तिवारी को आजन्म काले-पानी की सजा तथा कुन्दन लाल और प्रेम दत्त को क्रमशः सात तथा पांच वर्ष का कठिन कारावास का दंड प्रदान किया गया। इस निर्णय के विरूद्ध सारे देश में कोहराम-सा मच गया और बड़ी आशा से इस फैसले के विरूद्ध प्रिवी काउंसिल में इसकी अपील की गई और अपील के कारणों में देश के प्रमुख वकीलों ने एकमत होकर बतलाया था, कि ट्रिब्यूनल का निर्माण तथा उसकी कार्यवाही ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट’ की 72वीं धारा के विरूद्ध थी; यह भी बतलाया गया था, कि चूकि इस मामले में कोई ऐसी विशेषता नही थी जिसके कारण ‘आर्डिनेंस’ जारी करने की आवश्यकता प्रतीत हो, अतएव एक ऐसा घातक आर्डिनेंस जारी करना गवर्नर जनरल के अधिकार के बाहर, अतएव सर्वथा गैर-कानूनी था। चंकि स्टेज पहले से ही सेट हो चुका था, अतएव अपील के संबंध में मि. के. सी. प्रिट का वक्तव्य समाप्त होते ही और बिना सरकारी वकील को बुलाये ही, प्रिवी काउंसिल ने सरसरी ढग से अपील देखते ही 11 फरबरी 1931 को खारिज कर दी।
इसके बाद देश भर के लगभग समस्त प्रभावशाली नेताओं तथा संस्थाओं ने गवर्नर-जनरल से इन नौजवानों के जीवन-दान की भिक्षा के लिये झोली पसारी पर परिणाम वही हुआ, जिसकी आशा थी। देशवासियों की सारी गिड़गिड़ाहट असफल रही और जीवनदान के लिए पसारी हुई झोली में 23 मार्च, 1931 की संध्या के साढ़े सात बजे तीन ठंडी लाशें डाल दी गई।
लाहौर के षड़यंत्र केस में 4 एप्रुवर और 28 अपराधी थे। जिसमें तीन महिलायें भी शामिल थी। उन पर वाइसराय की ट्रेन को बम से उडा़ने का प्रयत्न करने, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त तथा औरों को छुड़ाने का उद्यागे करने, क्रांतिकारी पर्चे बाटने और पंजाब में बम चलाने आदि का अभियोग लगाया गया था। 
    
पहले लाहौर षड्यंत्र केश का फैसला
जब यह मुकदमा आरंभ हुआ था तो इसमें कुल मिलाकर 24 अभियुक्त थे।इनमें से भगवान दास को भुसावल षड़यंत्र  केश में सजा हो चुकी है। पांच अभियुक्त चन्द्रशेखर आजाद उर्फ पंडित जी, कैलाशपति उर्फ कालिचरण, भगवतीचरण, यशपान और सतगुरुदयाल पकड़े नहीं जा सके। शेष अठारह में से तीन; आग्याराम, सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय और बटुकेश्वर दत्त स्पेशल ट्रिब्यूनल के सामने मुकदमा शुरू होने पर छोड़ गए और बाकी बारह को दण्ड दिया गया। इस षड़यंत्र केश का फैसला फुल स्केप साइज के 400 पृष्ठों में टाइप किया गया था और इसकी प्रत्येक कापी 255 रू. मूल्य लेकर अखबार वालों को दी गई थी। इसी ऐतिहासिक फैसले का सारंश-मात्र नीचे दिया गया है-

एप्रूवर
इस मुकदमे में सात एप्रुवर थे। इनमें से रामसरनदास और ब्रम्हादत्त ने बाद में अपने बयान वापस ले लिए। शेष पांच एप्रूवर फनीन्द्रनाथ घोष, ललित कुमार मुकर्जी, मनमोहन बनर्जी, जयगोपाल और हंसराज बोहरा थे। फनीन्द्रनाथ घोष और मनमोहन बनर्जी ने विशेषकर बिहार और कलकत्ता की, ललिज कुमार मुकर्जी ने इलाहाबाद और आगरा की, और जयगोपाल तथा हंसराज ने पंजाब की षड़यंत्र संबंधी कार्यवाहियों का वर्णन किया।
इनके अतिरिक्त प्रेमदत्त, महावीर सिंह और गयाप्रसाद ने अदालत के सामने अपना दोष स्वीकार करके बयान दिया। गयाप्रसाद ने अपने को निर्दोष सिद्ध करने की चेष्टा की।

क्रांतिकारी दल की वृद्धि
एप्रूवर फनीन्द्रनाथ के, जो बेतिया का निवासी है, बयान से मालूम होता है कि यह क्रांतिकारी आंदोलन में सन् 1916 में सम्मिलित हुआ था। वह अनुशीलन समिति नाम की बंगाल की गुप्त सभा का मेंबर था। 1918 में उसे एक साल के लिए नजरबंद किया गया। 1919 में उनकी पहचान मनमोहन बनर्जी से हुई और उसके साथ वह तीन वर्ष तक बिहार में क्रांतिकारी दल की स्थापना करने की चेष्टा करने लगा। 1925 में उसने हिन्दुस्तानी सेवा-दल की स्थापना की, जिसका उद्देश्य राजनीतिक काम करना था।

काकोरी केस
सन् 1926 के आरंभ में वह बनारस गया और संयुक्त प्रांतीय क्रांतिकारी दल के कुछ मेंबरों से मिला। उस समय इस दल के कितने ही सदस्य काकोरी डकैती केश में पकड़़े गए थे और उसकी हालत कमजोर थी। फनीन्द्रनाथ इलाहाबाद में  शचीन्द्रनाथ सन्याल के भाई जतीन्द्रनाथ (जितेन्द्रनाथ) सन्याल से मिला और सन् 1927 में उसे संयुक्त प्रांतीय दल के कुछ रिवाल्बर मिले। इस वर्ष उसने कमलनाथ तिवारी को अपने दल का सदस्य बनाया।\

बनारस में हत्या की चेष्टा
सन् 1927 के अंतिम भाग में जतीन्द्रनाथ संन्याल और विजय कुमार सिन्हा ने शिव वर्मा को बेतिया इसलिए भेजा कि वह फनीन्द्रनाथ से एक रिवाल्वर मांग लाए। फनीन्द्रनाथ खुद उसे नेकर बनारस आया और फिर 13 फरबरी 1928 को सी. आई. डी. विभाग के राय बहादुर जे. एन. बनर्जी पर गोली चलाने के काम में लाया गया।

पंजाब
इधर पंजाब मेें सुखदेव ने सन् 1926 में क्रांतिकारी दल का संगठन करना आरंभ किया। उसका हेड-क्वाटर लाहौर में था। उस समय एप्रूवर जयगोपाल नेशनल स्कूल का विद्यार्थी था। उसने अपने यहां के एक मास्टर की मार्फत सुखदेव से जान-पहचान कर ली और नवंबर 1926 में वह उसकी पार्टी का मेंबर बन गया। उसने स्कूल की लायब्रेरी से विस्फोटक पदार्थ बनाने की एक किताब, दो थर्मामीटर, दो बैटरी और कुछ बम बनाने का मसाला चुराकर सुखदेव को दिया। सुखदेव का दूसरा साथी हंसराज बोहरा था, जो उसका रिश्तेदार भी था।

पीला पर्चा
मेंबर बनाते समय सुखदेव ने हंसराज को एक पीला पर्चा दिखलाया जिसमें उसकी पार्टी का कार्यक्रम और उद्देश्य बतलाए गए थे इस संस्था का नाम उस समय ‘हिन्दुस्तान प्रजातंत्र समिति’ था। इन सदस्य बनने वालों को सुखदेव क्रांतिकारी पुस्तकें पढ़ने को दिया करते था। 1927 में सुखदेव का परिचय भगत सिंह से भी हो गया।

कैदी को छुड़ाने की चेष्टा
3 मार्च 1928 को फतेहगढ़ जेल में काकोरीकेस के कैदियों से भेट करने के लिए विजयकुमार सिन्हा और शिव वर्मा ने अर्जी दी। इन कैदियों में से एक जोगेशचन्द्र चटर्जी था। जेल के सुपरिटेंडेंट को शक हुआ कि ये लोग जोगेशचन्द्र को छुड़ाने के लिए कोई षड़यंत्र रचना चाहते है और इसलिए उसने मिलने की आज्ञा न दी। इन दोनों का पीछा पुलिस ने किया और मालूम हुआ कि शिव वर्मा जलालाबाद में गयाप्रसाद नामक एक डाक्टर के यहां है। इसके साथ शिव वर्मा की पहचान थोड़े दिन पहले कानपुर में हुई थी।


छिपने का मुकाम
जुलाई 1928 में कानपुर में एक मीटिंग हुई, जिसमें गयाप्रसाद शिव वर्मा और सुखदेव मौजूद थे। इसके फलस्वरूप सुखदेव, गयाप्रसाद को लाहौर ले गया। सुखदेव के कहने से गयाप्रसाद ने फीरोजपुर में डाक्टरी की दुकान डा. बी. एस. निगम के नाम से खोली। जयगोपाल की गवाही से इस दुकान को खोलने के तीन उद्देश्य थे। पहला यह, कि पंजाब से अन्य प्रांतों को जाने वाले या अन्य प्रांतों से पंजाब आने वाले षड़यंत्रकारी वहां ठहर कर अपनी पोशाक आदि बदल सकें। दूसरा यह, कि दुकान की मार्फत बम बनाने के मसाले खरीदे जायें 


गुप्त मीटिंग
अगस्त 1928 में विजय कुमार सिन्हा बेतिया जाकर फनीन्द्र कुमार से मिला। उसने कहा कि उसका इरादा भिन्न-भिन्न पर्टियों को मिलाकर एक बड़ी पार्टी का संगठन करने का है। उसने यह भी कहा कि इस कार्य के लिए 8 और 9 सितंबर को दिल्ली में एक गुप्त मीटिंग होने वाली है, इस मीटिंग में पंजाब के कार्यकर्ता भगत सिंह और सुखदेव आदि, सेयुक्त प्रांत के शिव वर्मा और चन्द्रशेखर आजाद आदि सम्मिलित होंगे। उसने यह भी कहा कि वह अब जतीन्द्रनाथ की अध्यक्षता में काम नहीं करना चाहता, क्योंकि वह बहुत सुस्त आदमी है।
8 सितंबर को फनीन्द्रनाथ दिल्ली पहंुचा, वहा विजयकुमार ने उससे कहा कि मीटिंग कल होगी। 9 तारीख को सब सदस्य फिरोजशाह तुगलक के किले में इकट्ठे हुए। उसमें षड़यंत्रकारी आंदोलन का संचालन करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की गई, जिसमें सात मेंबर थे-भगत सिंह, सुखदेव, विजय कुमार, शिव वर्मा, फनीन्द्रनाथ और चन्द्रशेखर आजाद। 
इस मींटिग में यह भी निश्चित किया गया कि बंगाल की क्रांतिकारी पार्टी से संबंध न रखा जाए, क्योंकि वह मारकाट के विरूद्ध है। सुखदेव पंजाब का इंचार्ज बनाया गया, शिव वर्मा संयुक्त प्रांत का और फनीन्द्रनाथ बिहार का। चन्द्रशेखर सैनिक विभाग का मुखिया बनाया गया और कुन्दनलाल को, जो झांसी में रहता था, सेंट्रल ऑफिस का प्रबंध सौपा गया। भगत सिंह और विजय कुमार विभिन्न प्रांतों में संबंध स्थापित रखने के लिए नियुक्त किए गए। निश्चय हुआ कि डकैती, हत्या आदि कार्य, बिना सेन्ट्रल कमेटी की मंजूरी के नहीं होंगे, पार्टी में हथियार और फंड भी सेन्ट्रल कमेटी के अधिकार में रहेंगे।


क्रांतिकारी योजनाएं
इस मींटिग में काकोरी केस के कैदी जोगेशचन्द्र चटर्जी को, जो आगरा जेल में था, छुड़ाने का निश्चय किया गया और उसके लिए प्रबंध करने का भार विजयकुमार को सौपा गया। शचीन्द्रनाथ सन्याल को छुड़ाने का प्रस्ताव भी किया गया, पर इस संबंध में कोई निश्चित चेष्टा नहीं की गई। साइमन कमीशन के सदस्यों के विरूद्ध कार्यवाही करने का विचार भी किया गया और इसके लिए बंगाल से बम बनाने वालों को बुलाने का निश्चय भी किया गया। एक प्रस्ताव यह किया गया, कि काकोरी केस के एप्रूवर को मार डाला जाए। डाका डालने के लिए किसी जगह को ढूढने का प्रस्ताव किया गया और अंत में बिहार में यह कार्य करना पक्का ठहरा।
बक्स में पिस्तौलें
17 नवंबर, 1928 को लाजपतराय का देहांत हुआ। इसके कुछ समय पश्चात पंडित जी (चन्द्रशेखर आजाद) एक बक्स लेकर लाहौर आया, जिसमें एक माऊजर पिस्तौल और चार रिवाल्बरें थीं। उसी दिन सेंट्रल कमेटी के और भी मेंबर आए। 4 दिसम्बर को पंजाब नेशनल बैंक पर डाका डालने का उद्योग किया गया। निश्चय हुआ कि भगत सिंह और महावीर सिंह टैक्सी गाड़ी लेकर शाम के तीन बजे बैंक पर पहंुचेंगे। कुछ मेंबर चौकीदार और पहरे वालों को पकड़ लेंगे और जयगोपाल तथा किशोरी लाल खजांची से रुपये छीन लेंगे। नियत समय पर लोग तैयार थे, पर भगत सिंह व महावीर सिंह जिस टैक्सी में बैठे थेवह रास्ते में रुक गई और महावीर सिंह उसे न चला सका। फल यह हुआ कि सारी योजना विफल हो गई।
सांडर्स की हत्या
9 या 10 दिसम्बर को ‘मोजंग हाउस’ (जो क्रांतिकारियों का अड्डा कहा जाता है) में एक मीटिंग हुई, जिसमें लाहौर के पुलिस सुपरिटेंडेंट मि. स्काट को मारने की सलाह की गई, क्योंकि क्रांतिकारी दल की सम्मति में उसी ने लाला लाजपतराय को चोट पहुंचाई थी। जयगोपाल को मि. स्काट की गतिविधि का निरीक्षण करने को नियुक्त किया गया और इसके लिए कई वह कई दिनों तक लगातार पुलिस के आफिस के अहाते के आस-पास चक्कर लगाता रहा। चन्द्रशेखर ने 17 दिसम्बर का दिन हत्या के लिए मुकर्रर किया और उस दिन दो बजे इस संबंध में फिर एक मीटिंग हुई, जिसमें चन्द्रशेखर के अलावा भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और जयगोपाल उपस्थित थे। इसके दो दिन पहले 15 दिसंबर को भगत सिंह, जयगोपाल और हंसराज को कुछ गुलाबी पोस्टर दिखलाए थे, जिनमें लिखा था-‘स्काट मर गया।’
17 तारीख को सुबह के दस बजे जयगोपाल पुलिस के आफिस की तरफ गया और उसने एक अंग्रेज पुलिस अफसर को मोटर साइकिल पर भीतर जाते देखा था। उसने उसी को स्काट समझा और इसकी खबर चन्द्रशेखर को दी। दो बजे दोपहर की मीटिंग में हथियार बांट दिए गए। चन्द्रशेखर ने माऊजर पिस्तौल, भगत सिंह ने आटोमेटिक पिस्तौल और राजगुरु ने रिवाल्वर लिया। यही तीनों व्यक्ति हत्या के लिए नियुक्त किये गए थे।
करीब 4 बजे शाम को मि. सांडर्स मोटर साइकिल पर बाहर निकला। उसके साथ ही हेड कांस्टेबल चयन सिंह था। जयगोपाल के इशारा करने पर राजगुरु सांडर्स की तरफ बढ़़ा और जैसे ही नजदीक आया, उसने गोली चलाई। सांडर्स घायल होकर मोटर साइकिल के साथ नीचे गिर गया और उसकी एक टांग दब गई। इतने में भगत सिंह भी दौड़कर वहां पहुंचा और उसने कई गोलियां चलाई। इसके बाद ये दोंनों जयगोपाल के साथ भागे और चनन सिंह और ट्राफिक इंस्पेक्टर मि. फर्न उनको पकड़ने को दौड़े। भगत सिंह ने पीछे मुड़कर गोली चलाई और मि. फर्न बचने के लिए नीचे गिर पड़े। चनन सिंह डी0ए0वी0 कालेज के अहाते तक बराबर पीछा करता गया और वहां सम्भवतः चन्द्रशेखर ने उसे माउजर पिस्तौल से मार दिया।

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